काशीपुर।उत्तराखंड के कुमाऊं अंचल की पहचान कही जाने वाली ऐंपण कला (Aipan Art) आज भी परंपरा और आस्था की गहराई को दर्शाती है। यह लोककला न केवल घरों की देहरी और मंदिरों की शोभा बढ़ाती है, बल्कि हर शुभ अवसर — नामकरण, यज्ञोपवीत संस्कार, विवाह या धार्मिक अनुष्ठान — में मंगल प्रतीक मानी जाती है।कुमाऊं में इस कला को कहीं “ऐंपण” तो कहीं “ऐपन” कहा जाता है। दो से ढाई दशक पहले तक महिलाएं मिट्टी से लिपाई-पुताई करने के बाद चावल के आटे के घोल से ऐंपण बनाती थीं। दीपावली जैसे त्यौहार पर घरों की देहरी, तुलसी चौरा और मंदिरों को विशेष रूप से सजाने की परंपरा रही है।समय के साथ भले ही मिट्टी और विस्वार (चावल के घोल) की जगह रंगों और पेंट ने ले ली हो, लेकिन ऐंपण कला ने अब अंतरराष्ट्रीय स्तर तक अपनी पहचान बना ली है। आज यह कला कपड़ों, टाइल्स, नेमप्लेट्स और पूजा सामग्री में भी देखी जा सकती है।कैसे बनता है ऐंपणसबसे पहले घर, मंदिर या आंगन की गेरू या लाल मिट्टी से लिपाई की जाती है। इसके बाद चावल पीसकर उसका घोल तैयार किया जाता है, जिसे विस्वार कहा जाता है। कुछ क्षेत्रों में खड़िया मिट्टी का भी उपयोग किया जाता है। लिपाई के बाद इस घोल से विभिन्न शुभ प्रतीक, ज्यामितीय आकृतियाँ और देवी-देवताओं के चिह्न बनाए जाते हैं। यही ऐंपण कला कहलाती है।दीपावली पर विशेष महत्वकुमाऊं में दीपावली पर्व पर ऐंपण बनाने की परंपरा अत्यंत प्राचीन है। इस अवसर पर घर की देहरी, मंदिर, तुलसी चौरा, ओखली, हवन कुंड और सूप तक को ऐंपण से सजाया जाता है। महिलाएं और बालिकाएं दीपावली से कई दिन पहले ही घर की सफाई और सजावट के साथ ऐंपण बनाने की तैयारी में जुट जाती हैं।पिछले कुछ वर्षों में स्टीकर वाले ऐंपण भी बाजार में आ गए हैं, जिन्हें घर सजाने में लोग बड़ी संख्या में उपयोग करने लगे हैं। वहीं, कई महिलाएं पारंपरिक ऐंपण डिज़ाइनों से सजावटी वस्तुएं, पूजा की थालियां, नेमप्लेट और उपहार सामग्री तैयार कर रही हैं, जिनकी विदेशों तक मांग रहती है।अलग-अलग प्रकार के ऐंपणकुमाऊं में ऐंपण के विभिन्न रूप और नाम हैं —वसुधारा ऐंपण: घर की सीढ़ियों, तुलसी चौरा और मंदिरों में बनाए जाते हैं।भद्र ऐंपण: मंदिर की बेदी और दरवाजे की देहरी पर बनाए जाते हैं।लक्ष्मी आसन, नवदुर्गा चौकी, सरस्वती चौकी, विवाह चौकी आदि भी अलग-अलग अवसरों पर बनाए जाने वाले ऐंपण के विशेष रूप हैं।परंपरा और आधुनिकता के मेल से आज ऐंपण कला न केवल घरों की देहरी बल्कि विश्व के मंचों तक कुमाऊं की पहचान बन चुकी है।
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