बेंगलुरु। कर्नाटक राज्योत्सव (1 नवंबर 2025) के अवसर पर आयोजित समारोह के दौरान मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने केंद्र सरकार पर तीखा हमला बोला। उन्होंने आरोप लगाया कि केंद्र सरकार कन्नड़ भाषा को हाशिये पर धकेलते हुए हिंदी और अंग्रेजी को आक्रामक रूप से बढ़ावा दे रही है। उन्होंने इसे “सौतेला व्यवहार” बताते हुए कहा कि कर्नाटक हर वर्ष लगभग ₹4.5 लाख करोड़ रुपये केंद्र के राजस्व में योगदान देता है, इसके बावजूद राज्य की मातृभाषा के साथ उपेक्षा की जा रही है।सिद्धारमैया ने चेतावनी दी कि शिक्षा में हिंदी और अंग्रेजी का बढ़ता प्रभुत्व बच्चों की प्राकृतिक भाषाई क्षमता और रचनात्मकता को कमजोर कर रहा है। उन्होंने कहा, “विकसित देशों के बच्चे इसलिए आगे बढ़ते हैं क्योंकि वे अपनी मातृभाषा में शिक्षा प्राप्त करते हैं। इससे सोचने और नवाचार की शक्ति विकसित होती है। लेकिन हमारे यहां हिंदी और अंग्रेजी थोपने से बच्चों की प्रतिभा सीमित हो रही है।”मुख्यमंत्री ने सरकार और समाज से अपील की कि मातृभाषा आधारित शिक्षा को प्राथमिकता दी जाए और दो-भाषा नीति (कन्नड़ और अंग्रेजी) अपनाने पर विचार किया जाए। इस दौरान राज्य के संस्कृति मंत्री शिवराज तंगड़ागी समेत कई अन्य नेताओं ने भी कन्नड़ को शिक्षा और प्रशासन में मजबूत करने की आवश्यकता पर जोर दिया।—ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: कर्नाटक में भाषा विवाद की जड़ेंकर्नाटक में भाषा को लेकर तनाव कोई नया नहीं है। 1980 के दशक में हुए प्रसिद्ध गोकाक आंदोलन ने कन्नड़ को स्कूलों में प्राथमिकता देने की मांग को लेकर पूरे राज्य में जनआंदोलन खड़ा किया था। वर्तमान विवाद भी उसी भावना को दोहरा रहा है।विवाद का केंद्र राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) 2020 है, जिसके तहत तीन-भाषा सूत्र लागू किया गया है — कन्नड़ प्रथम भाषा, अंग्रेजी दूसरी, और हिंदी या अन्य क्षेत्रीय भाषा तीसरी। आलोचकों का कहना है कि यह नीति परोक्ष रूप से हिंदी को थोपने का प्रयास है, जिससे कन्नड़ भाषी छात्रों पर अतिरिक्त दबाव बनता है।कन्नड़ विकास प्राधिकरण (KDA) के अध्यक्ष पुरुषोत्तम बिलिमाले लंबे समय से इस तीन-भाषा नीति का विरोध करते आ रहे हैं। उनका तर्क है कि छात्रों पर बोझ कम करने और कन्नड़ की पहचान को सुदृढ़ करने के लिए केवल दो भाषाएँ — कन्नड़ और अंग्रेजी — पर्याप्त हैं।राज्य में हिंदी का बढ़ता प्रभाव न केवल शिक्षा में बल्कि रोजमर्रा के जीवन में भी दिखता है — सरकारी बोर्डों पर हिंदी-प्रधान साइनबोर्ड, भर्ती में हिंदीभाषी उम्मीदवारों को प्राथमिकता, और सरकारी दस्तावेजों में कन्नड़ अनुवादों की कमी ने आम जनता में असंतोष बढ़ा दिया है।इसके विरोध में छात्रों और युवा संगठनों ने ‘नम्मा भाषा’ (हमारी भाषा) जैसे अभियानों की शुरुआत की है, जिनका उद्देश्य कन्नड़ भाषा की प्रतिष्ठा और पहचान की रक्षा करना है।—राजनीतिक और सामाजिक प्रतिक्रियायह मुद्दा कर्नाटक की राजनीति में गहरी विभाजन रेखा खींच रहा है। सिद्धारमैया के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार कन्नड़ की प्राथमिकता और हिंदी थोपने के विरोध में दो-भाषा नीति की हिमायती है। कांग्रेस नेताओं का कहना है कि दक्षिण भारत की भाषाई विविधता का सम्मान किया जाना चाहिए और छात्रों पर किसी विदेशी भाषा का बोझ नहीं डालना चाहिए।वहीं, भाजपा नेताओं ने कांग्रेस पर आरोप लगाया कि वह शासन की विफलताओं से ध्यान भटकाने के लिए भाषा को राजनीतिक मुद्दा बना रही है। भाजपा का कहना है कि हिंदी सीखना राष्ट्रीय एकता और रोजगार के अवसरों के लिए आवश्यक है।दूसरी ओर, कर्नाटक प्राइमरी एंड सेकेंडरी स्कूल्स मैनेजमेंट एसोसिएशन (KAMS) जैसी कुछ शैक्षिक संस्थाओं ने तीन-भाषा नीति को वापस लेने का विरोध किया है। उनका कहना है कि भाषा की विविधता छात्रों के लिए अवसरों को सीमित करने के बजाय बढ़ाती है और इसे माता-पिता की पसंद पर छोड़ना चाहिए।हालांकि, बड़ी संख्या में अभिभावक और छात्र मुख्यमंत्री सिद्धारमैया के रुख का समर्थन कर रहे हैं। उनका मानना है कि कन्नड़ में शिक्षा से बच्चों की सोचने की क्षमता, आत्मविश्वास और राज्य की सांस्कृतिक जड़ों से जुड़ाव मजबूत होगा।कुल मिलाकर, कर्नाटक में यह विवाद केवल भाषा का नहीं बल्कि पहचान, संस्कृति और आत्मसम्मान से जुड़ा मुद्दा बन चुका है।
संपादक : एफ यू खान
संपर्क: +91 9837215263
